गुरुवार, 17 जुलाई 2008

कश्‍मकश

कभी कभी,

ऐसा लगता है ,

कि जैसे,

मैं कहीं खो गई हूं,

किसी और की हो गई हूं।

फिर सहसा ध्‍यान जाता है,

उन पर,

जो मेरे अपने है,

जिनकी आंखों में ,

मुझे लेकर कुछ सपने हैं,

बढ़ता कदम रूक जाता है,

दिल मेरा टूट जाता है।

एक अजीब कश्‍मकश में,

जी रही हूं,

सच,

घूंट जहर के,
पी रही हूं।

(अनिता शर्मा)

8 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

ये कविता पढ़ कर प्रती‍त होता है कि आप दिल और दिमाग के बीच फंसी हुई हैा लेकिन मेरा मानना ये है कि हमेशा दिल की माननी चाहिए। दिल होता लेफ्ट में है लेकिन हमेशा राइट होता है

उम्मीद ने कहा…

bhut hi bahterin rachna
aap sach main bhut accha likhti hai
keep writtng

उम्मीद ने कहा…

bhut acchi rachna
aap kabhi likhna mat chhodna

sita kumari ने कहा…

kaya aap isme sadi ki bat ker rhai hai ki,sadi ke baad tum apne ghar se door ho jaoogi..But I think you are more happy to leave with your handpump sorry husband....so go for it. and not think about these silly poems.just live Life step by step.....................

निर्झर'नीर ने कहा…

कम-ओ-बेश हर इन्सान कहीं न कहीं भ्रम और कश-म-कश में ही जीता है ..अच्छी रचना

mohammedilyas40 ने कहा…

BHAUT SHANDAR,KEEP IT UP KHUSHI HUI TUMHARE ANDAR AIK ACHCHA FANKAR MOJOD HAI

संजय भास्‍कर ने कहा…

सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !

बेनामी ने कहा…

अनीता जी आप इतना सुंदर लिखती हैं , पर बहुत दिन से आपने कुछ नहीं लिखा

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