रोज की तरह,
मैं अपनी मुश्क से मुंह ठके
सोने चली थी.
रोज की तरह
तुम्हारी यादों के
भूखे भेडिये भी
झपट पड़े थे.
यकायक
चेहरे पर पड़ी चादर ने,
मेरे होठों को छू लिया.
मुझे लगा यह तो तुम हो,
पर...
न न तुम कैसे हो सकते हो भला,
इतने आत्मिय ?
अब तो
करीब आकर वह
मेरे गालों से लिपट गई.
मैं सिहर गई,
मैंने आंखों को जोर से मूंद लिया,
और जी भर तुम्हें चूम लिया...
रोज की ही तरह,
एक और रात
तुम्हारे साथ गुजर गई.
पर हां,
कुछ अलग थी वह.
क्योंकि उस रात से
वह अदना सी चादर भी
मेरे लिए खास बन गई.
अनिता शर्मा
रास्ते कहीं खत्म नहीं होते, हम एक बार अपनी मंजिल को छू लें,लेकिन ये भी सच है कि एक रास्ता पार होते ही दूसरी राह बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार होती है। बस देर इस बात की है कि हम जो मंजिल पा चुके है उसका मोह त्याग कर नए रास्ते को अपना लें...
शनिवार, 12 सितंबर 2009
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जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम किस्से मुझे फिर से सुनाना. और पूछना मुझसे कि हुआ कुछ ऐस...
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जिसे कहने के लिए, तुम्हारा इंतज़ार था, वो बात कहीं छूट गई है। जिसके सिरहाने सर रखकर सोने को मैं, बेकरारा थी, वो रात कहीं टूट गई है। अतृप्त...
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14 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लगा,यह अपनेपन का एहसास ।
रोज की तरह,
मैं अपनी मुश्क से मुंह ठके
सोने चली थी.
रोज की तरह
तुम्हारी यादों के
भूखे भेडिये भी
झपट पड़े थे.
यकायक
चेहरे पर पड़ी चादर ने,
मेरे होठों को छू लिया.
मुझे लगा यह तो तुम हो,
पर...
न न तुम कैसे हो सकते हो भला,
इतने आत्मीय ?
अब तो
करीब आकर वह
मेरे गालों से लिपट गई.
मैं सिहर गई,
मैंने आंखों को जोर से मूंद लिया,
और जी भर तुम्हें चूम लिया...
रोज की ही तरह,
एक और रात
तुम्हारे साथ गुजर गई.
पर हां,
कुछ अलग थी वह.
क्योंकि उस रात से
वह अदना सी चादर भी
मेरे लिए खास बन गई.
क्योंकि उस रात से
वह अदना सी चादर भी
मेरे लिए खास बन गई.
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बहुत खूब --- सुन्दर भाव --- एहसास की कविता.
बहुत अच्छा लगा पढकर
बहुत सुन्दर...
ओह भूखे भेड़िये और ये रात और चादर...!!!
बहुत गूढ़ भाव...
अनीता जी
सादर वन्दे!
याद का कोई न कोई बहाना मिल ही जाता है,
सुन्दर रचना
रत्नेश त्रिपाठी
रोज की ही तरह,
एक और रात
तुम्हारे साथ गुजर गई.
रोज के छोटी-छोटी नजर न आने वाली चीजों को हमारी अनुभूतियाँ कितनी खास बना देती हैं..एकांत की समृद्धि को व्यक्त करती भाव्स्पर्शी कविता
बेहद खूबसूरत, अद्भुत रचना
आपकी लेखनी को मेरा नमन स्वीकार करें.
हू, बढिया- आत्मिय गलत है। आत्मीय लिखना।
itni ghatiya kyon likhti ho? apna bhi time barbad karti ho aur dusron ka bhi..... plz rehem karo.......
एक चादर को जीवन समझा
अपने जीने को तुमने इतना कम क्यों समझा
यादे बेशक होती है जीवन मै
पर उन्हें इतना संगदिल क्यों समझा ?
कहती हो चादर अहसास देती है उनका
क्या तुमने अपने प्रेम को कभी समझा
भूलना तुम्हारे बस मै है नहीं शायद
इसलिए तुमने जीवन को चादर समझा
चादर ,सिर्फ चादर नहीं,एक पर्दा भी है
बेपर्दा सी होती जिन्दगी को छिपाने की कला भी है
अहसास करती हो उनके न होने का रोज तुम
पर कभी पाने का करती हो कोई भी प्रयास तुम
रोज रात चादर के साथ गुजर जाती है
एक अहसास लेकर अगली रात फिर आती है
एक अदना सी चादर तुम्हे सुख देती है, चाहे अलग
पर क्या जीवन चादर का आवरण है
या ये सिर्फ तुम्हारा अपने किसी को खोने के भय का निराकरण
ये अहसास तुम्हारा है ,जिसे एक चादर का ही सहारा है,वर्ना इस संसार मै हर कोई दर्द का मारा है
जिनको चादर क्या,अंग छिपाने को
एक इंच कपडे का भी
नहीं सहारा है............
माफ़ कीजियेगा अनीता जी पता नहीं भावावेश मै कुछ लिख गया...अपने हमेशा की तरह अच्छा और सटीक लिखा है....मेरी सुभकामनाए स्वीकार करे....
"दुखता हो तो भी क्या,
अवहेलना सहसह कर
मुंह उठाए फिरफ़िर
तुम्हारी ओर दौड़ना,
यही तो इस की नियती है"
और भी बहुत कुछ है रेखांकित करने के लिए. नव वर्ष लेखनी को नए आयाम देगा ऐसा मेर विश्वास है.
bahut sundar , saath mai hraday ki gaharaiyo se aabhar ,jo is tarah se sundar dhang se apane komal ,nishchhal,pavitr bhawanao ko kavita k madhyam se byakt karane k liye aur ham tak pahuchane k liye, meri or se aapako shubhkaamana aapake uujwal bhavishy k liye
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