सोमवार, 14 सितंबर 2009

बनना और बिखरना

कभी नहीं चाहा था
कि मैं किसी के बिस्तर की,
सिल्वट भर बन रहूं,
कुछ ऐसी
कि उठने पर,
उसे खुद न पता हो
कि किस करवट से,
उभर आई थी मैं.
जरा गौर से देखो,
हमारा रिश्ता,
कुछ ऐसा ही तो है,
हां,
मैं हमेशा चाहते,
न चाहते
तुम्हारे सामने बिछ जाती हूं,
तुम उठते हो
और मुझे झाड़ देते हो
सदा के लिए...
तुम्हारी कसम
सच कहती हूं,
यह सोचकर अजीब लगता है
कि
मेरे अस्तित्व का बनना
और
बन कर बिखर जाना
तुम्हारे ऊपर ही निर्भर करता है.

अनिता शर्मा

5 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

गहरे भाव लिए एक सुन्दर कविता !

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

Sundar Bhav se saja sundar kavita..
badhayi

Udan Tashtari ने कहा…

उम्दा रचना!

हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.

कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य का एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरू करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये.

जय हिन्दी!

Kusum Thakur ने कहा…

सुन्दर भावपूर्ण कविता .

संजय भास्‍कर ने कहा…

गहरे भाव लिए एक सुन्दर कविता !

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...