मन में गहरी श्रृधा को लेकर,
पहुंची थी मैं गंगा के तट पर,
पर !खुशी नहीं हुई मुझे,
वहां पहली बार जाकर,
एक पीड़ा उभर आई होठों पर आंखों पर,
रोके न रूक रही थी वो पीड़ी,
टपक टपक कर सबको बता रही थी दुख मेरा,
देखा मैंने,
अनेक श्रृधाओं को,डूबते और तैरते,
व्यर्थ होते
उस आटे को,
रूई को,
तेल को,
कपड़े को
और इच्छा को,
जिसके लिए किसी के पेट में दर्द होता है,
कोई पूस के अंधेरे में,
नंगे बदन रोता है।
तैर रही थी वहां,
गंदी श्रृधा,
मैली श्रृधा,
जो मेरी पवित्र श्रृधा को,
मैला करने में जुटी थी।
लेकिन कुछ देर बाद मुझे रंज न रहा,
जब देखा मैंने कि एक आदमी ,
मुट्ठी भर आटे को रोता है,
एक आदमी,
उसे अंधी श्रृधा में खोता है।
यकिनन...यकिनन...
इसलिए
'आज' का 'अंधा मानव' रोता
है रोते रोते एक दिन वो मर जाता है।
और उसे बहा दिया जाता है उसी नदी में,
जहां उसे,
चाहे मरने पर ही,
पर रोटी और कपड़ा आखिर
ओह...
।मिल ही जाता है।
(अनिता शर्मा)
रास्ते कहीं खत्म नहीं होते, हम एक बार अपनी मंजिल को छू लें,लेकिन ये भी सच है कि एक रास्ता पार होते ही दूसरी राह बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार होती है। बस देर इस बात की है कि हम जो मंजिल पा चुके है उसका मोह त्याग कर नए रास्ते को अपना लें...
शनिवार, 30 अगस्त 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम किस्से मुझे फिर से सुनाना. और पूछना मुझसे कि हुआ कुछ ऐस...
-
मु्झे देखिए, परखिए और पंसद आने पर चुन लीजिए, आप लगा सकते है मेरी बोली, अरे घबराएं नहीं, यदि आप पुरुष हैं तो कतई नहीं, मेरी बोली आपकी जेब पर ...
-
जिसे कहने के लिए, तुम्हारा इंतज़ार था, वो बात कहीं छूट गई है। जिसके सिरहाने सर रखकर सोने को मैं, बेकरारा थी, वो रात कहीं टूट गई है। अतृप्त...
-
अकसर देखती हूं, राहगीर, नातेरिश्तेदार और यहां तक कि मेरे अपने दोस्तयार... उन्हें घूरघूर कर देखते हैं, उन की एक झलक को लालायित रहते हैं... -...
2 टिप्पणियां:
यकिनन...यकिनन...
इसलिए
'आज' का 'अंधा मानव' रोता है,
प्रभावशाली रचना!
गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।
एक टिप्पणी भेजें