शनिवार, 30 अगस्त 2008

मेरी श्रृधा

मन में गहरी श्रृधा को लेकर,
पहुंची थी मैं गंगा के तट पर,
पर !खुशी नहीं हुई मुझे,
वहां पहली बार जाकर,
एक पीड़ा उभर आई होठों पर आंखों पर,
रोके न रूक रही थी वो पीड़ी,
टपक टपक कर सबको बता रही थी दुख मेरा,
देखा मैंने,
अनेक श्रृधाओं को,डूबते और तैरते,
व्‍यर्थ होते
उस आटे को,
रूई को,
तेल को,
कपड़े को
और इच्‍छा को,

जिसके लिए किसी के पेट में दर्द होता है,
कोई पूस के अंधेरे में,
नंगे बदन रोता है।
तैर रही थी वहां,
गंदी श्रृधा,
मैली श्रृधा,
जो मेरी पवित्र श्रृधा को,
मैला करने में जुटी थी।
लेकिन कुछ देर बाद मुझे रंज न रहा,
जब देखा मैंने कि एक आदमी ,
मुट्ठी भर आटे को रोता है,
एक आदमी,
उसे अंधी श्रृधा में खोता है।
यकिनन...यकिनन...
इसलिए
'आज' का 'अंधा मानव' रोता
है रोते रोते एक दिन वो मर जाता है।
और उसे बहा दिया जाता है उसी नदी में,
जहां उसे,
चाहे मरने पर ही,
पर रोटी और कपड़ा आखिर
ओह...
।मिल ही जाता है।
(अनिता शर्मा)

2 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

यकिनन...यकिनन...
इसलिए
'आज' का 'अंधा मानव' रोता है,
प्रभावशाली रचना!

संजय भास्‍कर ने कहा…

गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।

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