गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

नस्ती सी पल्लवी


मैं वंच्य सी,
एक वंचिता,
जिसे प्रायः
सभी ने ठगा.
वृषक तो आए,
कई मुझ तक,
हो लालायित
इस नीरव योवन पर,
किंतु वहन न किया मेरा...
इस पर भी
अंजिर तक मेरे,
प्रेष्ठ तुम्हारा यूं आना
और आकर चले जाना...
सहसा कभी यूं ही
मुझ नय को
नीरव ध्वनि से
पुल्कित करना,
सच!
याद रहेगा मुझको
नित यूं,
तुम्हारा मुझे वलना.
कुछ यूं नेम रहा
स्नेह सूत्र हमारा...
जैसे नस्ती सी पल्लवी को
मिल गया हो
क्षितिज का कोई किनारा...

सिर्फ़ तुम्हारी 'अतृप्त ' अनु

5 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

बहुत सुन्दर शब्द चयन और अभिव्यक्ति

Unknown ने कहा…

hrudaya sparshi rachana...

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

Sundar Bhav..sundar kavita..badhayi..

हें प्रभु यह तेरापंथ ने कहा…

सुन्दर

समय चक्र ने कहा…

कुछ यूं नेम रहा
स्नेह सूत्र हमारा...
जैसे नस्ती सी पल्लवी को
मिल गया हो
क्षितिज का कोई किनारा...

बढ़िया बधाई.

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