मैं वंच्य सी,
एक वंचिता,
जिसे प्रायः
सभी ने ठगा.
वृषक तो आए,
कई मुझ तक,
हो लालायित
इस नीरव योवन पर,
किंतु वहन न किया मेरा...
इस पर भी
अंजिर तक मेरे,
प्रेष्ठ तुम्हारा यूं आना
और आकर चले जाना...
सहसा कभी यूं ही
मुझ नय को
नीरव ध्वनि से
पुल्कित करना,
सच!
याद रहेगा मुझको
नित यूं,
तुम्हारा मुझे वलना.
कुछ यूं नेम रहा
स्नेह सूत्र हमारा...
जैसे नस्ती सी पल्लवी को
मिल गया हो
क्षितिज का कोई किनारा...
सिर्फ़ तुम्हारी 'अतृप्त ' अनु
एक वंचिता,
जिसे प्रायः
सभी ने ठगा.
वृषक तो आए,
कई मुझ तक,
हो लालायित
इस नीरव योवन पर,
किंतु वहन न किया मेरा...
इस पर भी
अंजिर तक मेरे,
प्रेष्ठ तुम्हारा यूं आना
और आकर चले जाना...
सहसा कभी यूं ही
मुझ नय को
नीरव ध्वनि से
पुल्कित करना,
सच!
याद रहेगा मुझको
नित यूं,
तुम्हारा मुझे वलना.
कुछ यूं नेम रहा
स्नेह सूत्र हमारा...
जैसे नस्ती सी पल्लवी को
मिल गया हो
क्षितिज का कोई किनारा...
सिर्फ़ तुम्हारी 'अतृप्त ' अनु
5 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर शब्द चयन और अभिव्यक्ति
hrudaya sparshi rachana...
Sundar Bhav..sundar kavita..badhayi..
सुन्दर
कुछ यूं नेम रहा
स्नेह सूत्र हमारा...
जैसे नस्ती सी पल्लवी को
मिल गया हो
क्षितिज का कोई किनारा...
बढ़िया बधाई.
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