पीड़ामयी यह बयार,
जो बुनती रहती है,
विपुल क्रन्दन अपार,
अनायास ही दे जाती है
अनचाहे मुझको
अश्रु उत्स उधार,
अश्रु उत्स उधार,
प्रणय का तुम्हारा चुंबन
मेरी स्मृति बराए जूं आहार,
मेरी स्मृति बराए जूं आहार,
हाय, नेस्ती छाई है
बन जीवन विहास।
उसकी वाय में घुलना
तुम्हारा ए मेरे अवरुद्ध श्वास,
आज भी दे रहा है
मुझे वही मिश्रित सा अहसास।
तुम ही कहो अब
तुम ही कहो अब
प्रयण का वह पल,
कैसे भूलूं मैं
बन पलाश।
देखो तो,
तुम्हारा वह भोगी स्पर्श,
नित करता है अट्टहास।
अनीता शर्मा
6 टिप्पणियां:
बहुत खुब अनीता जी क्या कहूँ आपकी इस रचना के बारे में। बस यही समझीये आपकी ये रचना सिधे दिल तक उतर गयी,,,,,,,,,
अति भावपूर्ण रचना!
तुम्हारा वह भोगी स्पर्श,
नित करता है अट्टहास।
बहुत सुन्दर एहसास -- मन को छूती हुई सी रचना.
kuchh galtiya ho gayi he is kavita me jese vaat ko vay type kar diya he. kshma chahungi
kuchh galtiya ho gayi he is kavita me jese vaat ko vay type kar diya he. kshma chahungi
pida ko yun hi vyak karo...
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