(यह पहली पक्ति मेरी अपनी नहीं है।)
किसी के होठों का विपुल क्रंदन हूं,
व्यंत कहीं सूनेपन में,
मैं लहलहाती हुई सूनी लता हूं।
मुझ से रहो दूर,
जो चाहते हो भोगी सुखमय जीवन।
वृकायु से वैदेह के दिए
सूनेपन का
मैं निर्बाध बढ़ता विस्तार हूं।
जान लो मुझे करीब से,
मैं किसी भोगी के विलास से
फूट पड़ी हित्कार हूं।
दुत्कार दिए किसी भिक्षुक की
आंख से टपका पीड़ामयी मल्हार हूं।
टूटी किसी मसी की
मैं दर्द भरी चित्कार हूं।
माधुरी सी मुग्धा कभी थी,
आज विहर वेदना से भरी अपार हूं...
अनिता शर्मा
9 टिप्पणियां:
दर्द और वेदना साफ़ झलकता है
अच्छी रचना लिखी है आपने
viyogi hogaa pahlaa kavi, aah se upjaa hogaa gaan. vaakai aapne hriday kee gahraaiyon se aur dil kee kalam se bhaavnaaon kee dhaara ko gati dee hai, badhaai.
बहुत डुबा गई - एक अजब से दर्द के अहसास के साथ:
टूटी किसी मसी की
मैं दर्द भरी चित्कार हूं।
ओह्ह!!
बहुत ही भावुक कर देने वाली रचना .
achi rachna
बहुत ही भावुक कर देने वाली रचना .
दर्द और वेदना साफ़ झलकता है .pls inhe sudharen..:
आज विहर वेदना से भरी अपार हूं... virah ,not vihar.
आपकी रचनाओं में इतना दर्द क्यों है?
एक टिप्पणी भेजें