जब कभी
इस विहड़ नीड़ पर
फडफड़ा उठता है
तुम्हारी स्मृति का
चिर-आयु विहंग
उठती है
जाने कैसी विस्मृत सी
दुर्लभ सुगंध...
अकसर जब सांसे
मांगा करती हैं
तुम्हारी सांसों का वही अवैध स्पर्श...
जाने क्यूं हृदय हो उठता है
उन पर
यकायक ही बेहद कर्कष
चुपके से नयनों में
नींद लिए बैठी आंखें
अकसर भूले से
सो भी जाया करती हैं
पर अभागिन
नींद कहां कभी पाया करती हैं
विपुल राग ही बजा करते हैं
होठों की विणा पर
तुम ही कहो मिलन के गीत
गाऊं तो क्योंकर ?
भोगा मेरे हर रस को तुमने
रोद्र रस ही न किया तनिक भी स्पर्श
बतलाओं तो देकर जरा जिव्हा को कष्ट
इस निरस टूटे तारे को अब
भला कौन अपनाएगा सहर्ष...
अनिता शर्मा