शनिवार, 25 अप्रैल 2009

तेरे ख्वाबों के तिनके

तुझे भूलने की हर कोशिश में नाकाम हो जाती हूं
तुझे भूलते भूलते तुझमें ही कहीं खो जाती हूं मैं

हर वक्त तेरी यादों पे मिट~टी डाल देती हूं
पर अगले ही पल उसकी छांव में खुद को सोया हुआ पाती हूं मैं

खंजर ए जुदाई को सिने से निकाल देती हूं,
पर अगले ही पल खुद को लहूलुहान पाती हूं मैं

दूर होकर भी छीपा है तू मुझमें ही कहीं
हर वक्त तेरी सांसों की आहट से सिहर जाती हूं मैं

घर की दीवारों से बातें किया करती हूं
सपनों की हकीकत में कहीं एक जिंदगी जी जाती हूं मैं

रोज तेरे ख्वाबों की उम्मीद लिए सोती हूं
पर उठने पर ख्वाबों के तिनकों को बिखरा पाती हूं मैं

सोचती हूं दरवाजे पर दस्तक दी है तुने
पर बाहर जाने पर बस तेरी उम्मीद को खडा पाती हूं मैं

अनिता शर्मा

5 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अनीता जी,अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं। बधाई।


सोचती हूं दरवाजे पर दस्तक दी है तुने
पर बाहर जाने पर बस तेरी उम्मीद को खडा पाती हूं मैं

अनिल कान्त ने कहा…

मैंने दिल से कहा ...ढूढ़ लाना ख़ुशी ....न समझ ...लाया गम ...तो मैं गम ही सही

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

anurag ने कहा…

ये रीतापन ही तो जीवन है. जिस दिन भर जायेंगे उस दिन मर जायेंगे.

M Verma ने कहा…

रोज तेरे ख्वाबों की उम्मीद लिए सोती हूं
पर उठने पर ख्वाबों के तिनकों को बिखरा पाती हूं मैं
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बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. सशक्त

संजय भास्‍कर ने कहा…

truly brilliant..
keep writing......all the best

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