रोज देखती हूं
एक निरक्षर हाथों का जोडा
दिल्ली की हर रेड लाइट पर
बेच रहा होता है
साक्षरता का पहला ‘अक्षर’
इस जोडे को शायद
जमा घटा का ज्ञान नहीं
किंतु एक रुपय की कीमत
भली भांती ज्ञात है
मैला सिर, मैले लत्ते,
और मैली आंखों में चमकता वो शुद्ध मन...
मुझे रोज याद दिलाता है
कि
वह मेरे साक्षर हाथों का श्रष्टा है...
इसलिए ही कहती हूं
जब कभी
अपनी साक्षरता का पर गुरुर हो,
दौड कर उस रेड लाइट पर जाएं
और देखें
आपके हाथों को साक्षर बनाने वाले
वो नन्हें हाथों का जोडा
आज भी उसी चौराहे पर
10 रुपय के जोडे के हिसाब से
पैंसिलें बेच रहा है
वही पैंसिल
जिसे पकड
आपने पहला अक्षर लिखा था...
अनिता शर्मा
रास्ते कहीं खत्म नहीं होते, हम एक बार अपनी मंजिल को छू लें,लेकिन ये भी सच है कि एक रास्ता पार होते ही दूसरी राह बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार होती है। बस देर इस बात की है कि हम जो मंजिल पा चुके है उसका मोह त्याग कर नए रास्ते को अपना लें...
शनिवार, 4 सितंबर 2010
शनिवार, 29 मई 2010
स्तनों का जोड़ा
अकसर देखती हूं,
राहगीर, नातेरिश्तेदार
और यहां तक कि
मेरे अपने दोस्तयार...
उन्हें घूरघूर कर देखते हैं,
उन की एक झलक को लालायित रहते हैं...
---
आज मैं
उन लालायित आत्माओं को
कहना चाहती हूं,
जिन के लिए वे अकसर मर्यादा भूल जाते हैं,
वह मेरे शरीर का हिस्सा भर हैं...
ठीक वैसे ही, जैसे
मेरे होंठ,
मेरी आंख
और मेरी नाक
या फिर मेरे पांव या हाथ...
---
इसी के साथ
मैं उन से अनुरोध करती हूं...
मेरे मन में यह संशय न उठने दें
कि मैं नारी हूं या महज स्तनों का एकजोड़ा...
अनिता शर्मा
राहगीर, नातेरिश्तेदार
और यहां तक कि
मेरे अपने दोस्तयार...
उन्हें घूरघूर कर देखते हैं,
उन की एक झलक को लालायित रहते हैं...
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आज मैं
उन लालायित आत्माओं को
कहना चाहती हूं,
जिन के लिए वे अकसर मर्यादा भूल जाते हैं,
वह मेरे शरीर का हिस्सा भर हैं...
ठीक वैसे ही, जैसे
मेरे होंठ,
मेरी आंख
और मेरी नाक
या फिर मेरे पांव या हाथ...
---
इसी के साथ
मैं उन से अनुरोध करती हूं...
मेरे मन में यह संशय न उठने दें
कि मैं नारी हूं या महज स्तनों का एकजोड़ा...
अनिता शर्मा
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
बेचैन आयु
मुझे माफ करना जीवन
के मैं तुम्हें न जी सकी,
मुझे तोड़ देना संघर्ष
के मैं तुम्हें न सह सकी...
झूठी परंपराओं की वेदी पर...
अपने नेह को घोट पाना
कितना मुश्किल है
मेरे नेही
तुमने भला कब जाना
इस से तो अच्छा है
पिघल कर घुल जाउं,
लिप्त हो जाउं
तुम में
तुम्हारी प्राण वायु में
खो जाउं वाष्प सी कहीं
कि लौट कर
वापस न आ पाऊं
इस बेचैन आयु में...
वापस न आ पाऊं
इस बेचैन आयु में...
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
मेरी एक और मौत
मेरी मौत को
आत्महत्या का नाम न देना
यह तो एक कत्ल है
इस की शिनाख्त करवाना...
समाज के
हर उस ठेकेदार को
इस की सजा दिलवाना
जो मेरी आजादी पर
अपने नियमों का
पहरा दिए रहता था...
हर उस शख्स पर
जुर्माना लगाना
जिस ने मेरे अरमानों को
सहला सहला जवां किया
और परंपराओं की वेदी पर
नग्न कर शोषित किया
उस खास शख्स को
यातना जरूर देना
जिसने झूठे वादों की सेज पर
बार बार मेरा बलात्कार किया...
और हां
अंत में
यह घोषण करना न भूलना
कि
यह आत्महत्या नहीं थी
यह कत्ल था
वह भी अनजाने में नहीं
बल्कि
एक सोच समझी साजिश के तहत...
रविवार, 4 अप्रैल 2010
मेरा अस्तित्व: वीर्य सा
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जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम किस्से मुझे फिर से सुनाना. और पूछना मुझसे कि हुआ कुछ ऐस...
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मु्झे देखिए, परखिए और पंसद आने पर चुन लीजिए, आप लगा सकते है मेरी बोली, अरे घबराएं नहीं, यदि आप पुरुष हैं तो कतई नहीं, मेरी बोली आपकी जेब पर ...
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अकसर देखती हूं, राहगीर, नातेरिश्तेदार और यहां तक कि मेरे अपने दोस्तयार... उन्हें घूरघूर कर देखते हैं, उन की एक झलक को लालायित रहते हैं... -...