मुझे सजा होनी चाहिए,
वह भी फांसी की,
क्यों,
क्योंकि मैं हत्या की दोषी हूं...
वह भी एक या दो नहीं...
मैं रोज एक हत्या करती हूं...
कभी अपने आत्मसम्मान को,
तो कभी अपने अस्तित्व को,
मैं नित नए तरीको से कत्ल करती हूं...
--
ओह, मैं भी कितनी मुर्ख हूं...
भला मुझे सजा क्यों मिले,
सजा तो जीवित को निर्जीव करने पर मिलती है...
पर मैं,
मुर्दा लाशों में महज खंजर घोपा करती हूं...
रोंदती हूं,
मर चुके अस्तित्व को,
और बस यूं ही कभी-कभी खुद को...
वह भी फांसी की,
क्यों,
क्योंकि मैं हत्या की दोषी हूं...
वह भी एक या दो नहीं...
मैं रोज एक हत्या करती हूं...
कभी अपने आत्मसम्मान को,
तो कभी अपने अस्तित्व को,
मैं नित नए तरीको से कत्ल करती हूं...
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ओह, मैं भी कितनी मुर्ख हूं...
भला मुझे सजा क्यों मिले,
सजा तो जीवित को निर्जीव करने पर मिलती है...
पर मैं,
मुर्दा लाशों में महज खंजर घोपा करती हूं...
रोंदती हूं,
मर चुके अस्तित्व को,
और बस यूं ही कभी-कभी खुद को...