अंधेरे में दुबके इस मन को आंखों के रौशनदान बहुत पसंद जो हैं. यहीं से वो देखते हैं हरे-भरे बाग, बागों में बैठे परिंदे, आसमान में दौड़ती बेघर हवा, समंदर पर झुका प्यासा बादल, धरती को चूमता आसमां... वह सोचता है यह सब स्थाई है! ठीक उसके प्रेम से... पर रे भोले मन, हरे बाग, परिंदे, बेघर हवाएं, बादल, धरती और आसमां कहां स्थाई ठहरे, और प्रेम... अह! प्रेम तो निरा निर्मोही है... तू नहीं जानता, वो उस दिन सब छोड़ देता है, जिस दिन मोह छूटता है... किसने कहा प्रेम स्थाई है... सबकुछ परिवर्तनशील है बुद्धू...
मेरी बातों में अक्सर उसका मन नहीं लगता, मुंह घुमा लेता है मुझसे... पर मेरा साथ उसे पसंद है. भले ही चुपचाप सा, लेकिन रहता पास ही है... कल कहने लगा, 'तुम मानती क्यों नहीं, तुम्हें प्यार है.' और मैंने मुंह अपनी टीशर्ट के अंदर घुसा लिया... उसने कहा- 'अब ये क्या बचपना है...'
मैं चुप थी, उस ढीठ मन से कहा- 'ये बचपना कहां... बचपना तो इस वक्त तुम्हारे बालों से खेल रहा है, देखो वो लुढ़क कर तुम्हारे कांधे पर आ बैठा है, अब जरा उसे देखो भी... अरे, अरे वो गर्दन पर उंगलियां क्यों फेर रहा है... ये ढीठ तुम्हारे सीने से क्यों जा लिपटा है... अरे रोको इसे, चलो छोड़ो करने दो इसे ये बचपना...'
'तुम बोलने से इतना डरती क्यों हो, बोल दिया करो न हर वो बात, जो किसी से नहीं कहती या फिर सभी को बता देना चाहती हो...'
ऐसा अक्सर होता है, कुछ कहते कहते कहने का मन नहीं करता, तो चुप रहते रहते चुप रहने का भी मन नहीं करता... उस दिन ऐसा बहुत कुछ था जो मन को बताना था, लेकिन वो सुनता कहां है मेरी. दो बातें सुनने के बाद बस अपनी कहता है... बहुत कुछ ऐसा जो मैं बार-बार सुनना चाहूं, लेकिन बुद्धू सा वो एक ही बार कहता है हर बात...
कहने लगा तुमसे बहुत प्यार है... फिर क्या था, ऐसा लगा कि आसमां ही नहीं सब कुछ नीला हो चला है, मैं पैरों पर नही परों पर हूं, उड़ रही हूं कहीं नील गगल में, कहीं दूर क्षितिज को चूम रही हूं, लाल हूं सांझ में भी भौर सी, पी रही हूं चांद को और जल रही हूं सूरज से भी... मैंने सोचा, क्या जरूरी है इस मीठे मन को नाम देना, क्यों न इसे बेनाम छिपा कर रखा जाए. एक अरमान जैसा, एक बेहद प्यारे ख्वाब जैसा. जिसे हम बार-बार देखना चाहते हैं. पर देखो न, ये जो ख्वाब हैं न ये हमारी नहीं अपनी मर्जी से आते हैं. तो क्या, बस इंतजार... हां, इंतजार ही तो कर सकते हैं हम. उनके चले जाने पर फिर से आने का...
मन अपनी बातें कह कर जा चुका था. मैं वहीं खड़ी थी, पर अकेली नहीं, उसके स्पर्श के साथ, वो स्पर्श जो बचपने को मिला, वो जिसका ख्वाबों में इंतजार होगा, वो जो महका देता है उदास रात में अकेली हवा को भी, वो जो टपकता है चांद से लगातार, वो जो खिड़की के कोने से मुझे हमेशा ताकता है, वो जो आंखों के झरोखों से दिल में झांकता है... उसके सरपट दौड़ते कदम चले जा रहे हैं मुझसे दूर और मैं दौड़ रही हूं उनके करीब, और करीब, और करीब, बेहद करीब ये कहने को - 'बुद्धू, तुम जाकर भी नहीं जा पाओगे'.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें