क्या पलट रहे हो तुम,
पन्नों सा वक्त
या वक्त हो चुके पन्ने
या कि तुम मुझे छू ही लेना चाहते हो आंखों के चुंबन से
सुनों, छज्जे से जा चिपकी हैं तुम्हारी दो आंखें,
मुझे ताकती हैं निरंतर किसी बंधुआ सी
मैं घुप जाना चाहती हूं,
उस सीने में,
जिसमें लबालब है पसीना,
चख लेना चाहती हूं इस खारे अमृत को,
या कि मैं पीना चाहती हूं तुम्हारे आंसुओं को भी,
जो छज्जे पर जा लगी दो आंखों से टपकते हैं
दूरी की मवाद से...
मवाद, काम में बेजार प्यार की,
मवाद, हजारों-हजार बार छू सकने के इंतजार की,
टीस सी उभर आती है मेरे भी सीने में...
चलो, क्यों न आज इसे भींच कर निकाल फैंके सीने से,
क्यों न यहां लगाएं जरा सी राख,
जो रोक सके बहते खून को...
फिर हम उस राख पर उगाएंगे
कुछ वक्त, कुछ पंखुडियां, जरा सा नेह, तपती जलती देह और ढेर सारा खाना
खाना? हां...
ताकी तुम्हारी आंखें फिर किसी छज्जे पर जाने को विवश न हों,
तुम रहो करीब, बेहिसाब, बेमतलब, बेमवाद...
सुनो, अब बताओ भी,
क्या पटल रहे हो तुम,
पन्नों सा वक्त
या वक्त हो चुके पन्ने...
रास्ते कहीं खत्म नहीं होते, हम एक बार अपनी मंजिल को छू लें,लेकिन ये भी सच है कि एक रास्ता पार होते ही दूसरी राह बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार होती है। बस देर इस बात की है कि हम जो मंजिल पा चुके है उसका मोह त्याग कर नए रास्ते को अपना लें...
मंगलवार, 28 अगस्त 2018
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