सोमवार, 6 अगस्त 2018

लड़क‍ियां रुबाई सी होती हैं!


क्या हर कहानी सच्ची होती है... शायद हां. आख‍िर कहानि‍यां हमारे अपने कि‍स्सों से ही तो बनती हैं न... मानो जैसे ज‍िंदगी को सुनते-सुनते एक रोज ठहर कर उसे कुछ कह देना, फि‍र उसे ही बता देना वो तमाम क‍िस्से जो उसने ही हमें सुनाए थे, ज‍िनमें हम अक्सर रोए तो अक्सर मुस्कुराए थे. कभी-कभी ज‍िंदगी जब कि‍ताबों से नि‍कल कर आती है तो सुंदर लगती है और इसके बाद जब वो फ‍िर क‍िताब होती है तो और खूबसूरत हो जाती है... कुछ यूं ही तो तुम हो मेरी ज‍िंदगी में बेमतलब पर बेशकीमती से, पत्थर होते हुए भी हीरे से, दूर होते हुए भी करीब से, ज‍िंदगी न होते हुए भी ज‍िंदगी से...

याद है तुमने कहा था न-



'तुम दिल्ली की बार‍िश हो... खुद तो गीली हो ही मुझे भी हर बार भ‍िगा जाती हो. कभी-कभी सूखा भी होना चाह‍िए न. ज्यादा नमी भी अच्छी नहीं... '

'दिल्ली की बार‍िश! क्यों?'

'बस हो तो हो...'



'हम्म... और तुम! तुम क‍िसी फोल्डर से हो. ज‍िसमें स‍िर्फ फेक्ट्स रखे हैं. ऐसा फोल्डर ज‍िसे खोलने पर जीके तो बढाया जा सकता है प्यार नहीं... तुम्हें जरा सा प्यार, जरा सी बार‍िश और थोड़ी सी ठंड भी डाउनलोड करनी चाह‍िए... कब तक नोटपेड बने रहोगे, पेंट बनो न, रंगों से भरपूर, संभावनों से लबरेज और कल्पनाओं की असीम‍ित रेखाओं से भी परे... क्या हुआ बोलते क्यों नहीं...'

'तुम बोलो, अच्छी लगती हो बोलते हुए...' इन शब्दों से जैसे दिन भर चहकते द‍िल्ली के क‍ि‍सी चोराहे पर अचानक से रात का सन्नाटा पसर गया था... इस कानफाडू सन्नाटे को तुमने ही तो तोड़ा था न- 'अच्छा, बताओ तो सही हम इतनी बातें क्यों करते हैं?'

मैने बचपने से कहा था 'तुम ही बताओ क्यों?'

'क्योंक‍ि तुममें नशा है, चरस जैसा नशा, मैं तुमसे बेमतलब बातें क‍िए बि‍ना रह नहीं सकता... तुम्हारी लत हो गई है मुझे... '

मैं महकने लगी. पर चरस सी नहीं, मोगरे सी... ये तेज खुशबू सबको मेरी आंखों में तैरती द‍िख रही थी... मेरी आंखें ज‍िस क‍िसी से मिलतीं वो महक उठता... तुमसे जब जब बातें करती मेरे चारों ओर खुशबू फैल जाती. बेशम सी, अटखेल‍ियां करती खुशबू... मानों मैं ही उसका फूल हूं और मुझ पर मंडराना ही उसकी सार्थकता.

(मैंने सोचा लड़क‍ियां क‍िसी रुबाई सी होती हैं, क‍िसी लेखक की रचना जैसी, ज‍िन्हें प्यार की खूब तलब होती है. वो चाहती हैं क‍ि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए, बांचा जाए, बदन‍ीयत से नहीं, प्यार से, सहेज कर... ठीक उन्हीं नजरों से देखा जाए जैसे ल‍िखना छोड़ देने के बाद कोई अपनी पुरानी रचनाओं को देखता है... कागज पर उभरे उन अक्षरों के बदन को हर्फ-दर-हर्फ उंगल‍ियों का स्पर्श देता है, उकसाता है अपने मन को फि‍र कुछ ल‍िखने को...)

और मैंने तुमने पूछा था- 'चरस, लत... अरे ठहरो भई... कहां जा रहे हो तुम. मैं चरस नहीं मोगरे का फूल हूं. सादा, लेकि‍न महक से भरा... और हां तासीर में गर्म. बच कर रहना...'

और तुमसे बातें करने की खुशी में ठहाके की महक ल‍िए चेहरे पर ब‍िखर आए थे कुछ मोगरे के फूल, कुछ कलि‍यां और कुछ हरे पत्ते... पर समझ से परे थीं तुम्हारी बातें. न जाने क्यों रोज एक नई उपमा देते थे मुझे. ऐसा तो नहीं था क‍ि मैंने ये सब पहली बार सुना. पर हां, पहली बार अच्छा जरूर लगा... कभी-कभी अजीब लगता, फि‍र मन से कहती 'क‍ितनों पर भरोसा नहीं करेगा रे दुष्ट... समझ, सब एक से नहीं होते...' पर ये जो मन है न, उसके मन में ही चोर है...

मोगरे की उस महक ने उस दि‍न हमें शब्द विहीन सा छोड़ द‍िया था. मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कहीं दूर तुम महक रहे हो मेरी खुशबू में और यहां मैं पत्ता-पत्ता समेट रही हूं क‍ि अगली बार द‍िल्ली की नहीं फूलों की महकती बरसात बन सकूं... बता सकूं क‍ि रुबाई हूं मैं ठंडक, महक, नशे और गर्माहट से भरी... बता सकूं क‍ि मैं वो झरोखा हूं जो उमस भरे कमरे को देता है ठंडी ताजा सांसें, बता सकूं क‍ि रात के साये में जब चांद छ‍िप जाता है, तो अंधेरे समंदर पर स‍ितारों से जगमगाते जुगनू हूं मैं, बता सकूं क‍ि लत नहीं लहर हूं, रात हूं, सहर हूं और जो तुम में गुम हो गया है ऐसा एक पुराना क‍िस्से-कहान‍ियों वाला शहर हूं...

तुम्हें याद हैं न ये बातें...

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जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...