
वो आवारगी कहीं रगों में दौड़ती सी थी...
उसे कहां खबर थी, है दीवानगी हवाओं में,
जो बेतकल्लुफ हो लबों से निगाहें प्यासी जा लगी थीं.
कहां था अंदाजा कि ये जुनूं जला देगा आंचल सुर्ख शाम का,
कि ये प्यास ले डूबेगी समंदर को भी...
इस पर भी कुछ यूं करीब से गुजर गया वो कम्बख्त,
जैसे गुजरा हो कोई तूफां चुपचाप सा तबाही कर बस अभी-अभी...
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