जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना...
बैठना घड़ी भर को संग,
वो तमाम किस्से मुझे फिर से सुनाना.
और पूछना मुझसे
कि हुआ कुछ ऐसा ही संग मेरे भी?
तुम कुरेदना उन जख्मों को,
कि कुरेद-कुरेद कर उन्हें फिर नासूर बनाना.
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना...
कि दूर से मुस्कुराते इन चेहरों के करीब आकर,
जब तुम इन्हें मरा हुआ पाओगे,
तो सहम मत जाना,
तुम अभी तक नहीं जानते शायद,
सब मर चुके हैं, जीने का तो बस नाटक ही कर रहा है सारा जमाना...
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना
तुम में अभी जान बाकी है,
न मरने का या लड़ने का खूब अरमान बाकी है,
गर तुम्हारे छूने से ये हो सके तो अच्छा,
कि आते-आते किसी मरासन में नई जान डालते आना
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ तो मेरे पास चले आना
डरो नहीं, थक कर बस आराम किया जाता है,
कुछ देर ठहरना,
रोना और रोकर सारे गिले शिकवे भुलाना,
फिर तुम बस बिन ठहरे मुस्कुराते ही रहना...
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना
हो सकता है कि टूट जाएं तमाम सपने,
रूठ जाएं तुमसे तुम्हारे सबसे अपने,
टूटने दो, रूठने दो, रहने दो, छोड़ो भी,
कहां कोई तुम्हारे साथ आया था और कहां किसी को है साथ जाना?
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना
जब कभी खत्म हो रही हो कोई कहानी,
तुम उदास हो लेना जितना चाहे जी,
पर सुनो, इस उदासी के बाद
तुम बैठ कर कुछ नए किस्से जरूर बनाना
कि जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना
छोड़ देना तमाम भूलों को,
तोड़ देना तमाम शूलों को,
गर ज्यादा सताए कोई दर्द तुम्हें,
तो छेड़ देना वही अपना तराना पुराना
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना
उंगलियों के सांचे पर बुनेंगे हम,
खुशियों का ताना-बाना,
कभी करीब, तो कभी दूर
यकीन मानों कहां जानता है कोई?
हमसे ज्यादा जिदंगी सजाना...!
कि जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास जरूर चले आना...
- तुम्हारी अनु
रास्ते कहीं खत्म नहीं होते, हम एक बार अपनी मंजिल को छू लें,लेकिन ये भी सच है कि एक रास्ता पार होते ही दूसरी राह बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार होती है। बस देर इस बात की है कि हम जो मंजिल पा चुके है उसका मोह त्याग कर नए रास्ते को अपना लें...
बुधवार, 17 अक्टूबर 2018
मंगलवार, 28 अगस्त 2018
बेजार प्यार
क्या पलट रहे हो तुम,
पन्नों सा वक्त
या वक्त हो चुके पन्ने
या कि तुम मुझे छू ही लेना चाहते हो आंखों के चुंबन से
सुनों, छज्जे से जा चिपकी हैं तुम्हारी दो आंखें,
मुझे ताकती हैं निरंतर किसी बंधुआ सी
मैं घुप जाना चाहती हूं,
उस सीने में,
जिसमें लबालब है पसीना,
चख लेना चाहती हूं इस खारे अमृत को,
या कि मैं पीना चाहती हूं तुम्हारे आंसुओं को भी,
जो छज्जे पर जा लगी दो आंखों से टपकते हैं
दूरी की मवाद से...
मवाद, काम में बेजार प्यार की,
मवाद, हजारों-हजार बार छू सकने के इंतजार की,
टीस सी उभर आती है मेरे भी सीने में...
चलो, क्यों न आज इसे भींच कर निकाल फैंके सीने से,
क्यों न यहां लगाएं जरा सी राख,
जो रोक सके बहते खून को...
फिर हम उस राख पर उगाएंगे
कुछ वक्त, कुछ पंखुडियां, जरा सा नेह, तपती जलती देह और ढेर सारा खाना
खाना? हां...
ताकी तुम्हारी आंखें फिर किसी छज्जे पर जाने को विवश न हों,
तुम रहो करीब, बेहिसाब, बेमतलब, बेमवाद...
सुनो, अब बताओ भी,
क्या पटल रहे हो तुम,
पन्नों सा वक्त
या वक्त हो चुके पन्ने...
मंगलवार, 21 अगस्त 2018
कुछ बेहद प्यारे ख़्वाब सा
क्या सचमुच हम प्यार करते हैं, या ये हो जाता है बिन सोचे विचारे... क्या प्यार की रौशनी भी छिपी होती हैं अंधेरे कोनों में कहीं... क्या वहां, जहां कहीं अंधेरे में तुम दबे होते हो तो तुम तक पहुंचती भी हैं ये रौशन हवाएं और सांसें...? क्या तुम भी भर लेते हो एक सांस, पी लेते हो एक प्यास, तोड़ लेते हो कुछ सपने, उन्हें फिर गढ़ते हुए... क्या तुम देख पाते हो मुस्कुराती आंखों के पीछे दबी वह चीज, जो रोज अंधेरे कोनों से सटे इन दो रौशनदानों से झांकती है जगमगाती दुनिया में...
अंधेरे में दुबके इस मन को आंखों के रौशनदान बहुत पसंद जो हैं. यहीं से वो देखते हैं हरे-भरे बाग, बागों में बैठे परिंदे, आसमान में दौड़ती बेघर हवा, समंदर पर झुका प्यासा बादल, धरती को चूमता आसमां... वह सोचता है यह सब स्थाई है! ठीक उसके प्रेम से... पर रे भोले मन, हरे बाग, परिंदे, बेघर हवाएं, बादल, धरती और आसमां कहां स्थाई ठहरे, और प्रेम... अह! प्रेम तो निरा निर्मोही है... तू नहीं जानता, वो उस दिन सब छोड़ देता है, जिस दिन मोह छूटता है... किसने कहा प्रेम स्थाई है... सबकुछ परिवर्तनशील है बुद्धू...
मेरी बातों में अक्सर उसका मन नहीं लगता, मुंह घुमा लेता है मुझसे... पर मेरा साथ उसे पसंद है. भले ही चुपचाप सा, लेकिन रहता पास ही है... कल कहने लगा, 'तुम मानती क्यों नहीं, तुम्हें प्यार है.' और मैंने मुंह अपनी टीशर्ट के अंदर घुसा लिया... उसने कहा- 'अब ये क्या बचपना है...'
मैं चुप थी, उस ढीठ मन से कहा- 'ये बचपना कहां... बचपना तो इस वक्त तुम्हारे बालों से खेल रहा है, देखो वो लुढ़क कर तुम्हारे कांधे पर आ बैठा है, अब जरा उसे देखो भी... अरे, अरे वो गर्दन पर उंगलियां क्यों फेर रहा है... ये ढीठ तुम्हारे सीने से क्यों जा लिपटा है... अरे रोको इसे, चलो छोड़ो करने दो इसे ये बचपना...'
'तुम बोलने से इतना डरती क्यों हो, बोल दिया करो न हर वो बात, जो किसी से नहीं कहती या फिर सभी को बता देना चाहती हो...'
ऐसा अक्सर होता है, कुछ कहते कहते कहने का मन नहीं करता, तो चुप रहते रहते चुप रहने का भी मन नहीं करता... उस दिन ऐसा बहुत कुछ था जो मन को बताना था, लेकिन वो सुनता कहां है मेरी. दो बातें सुनने के बाद बस अपनी कहता है... बहुत कुछ ऐसा जो मैं बार-बार सुनना चाहूं, लेकिन बुद्धू सा वो एक ही बार कहता है हर बात...
कहने लगा तुमसे बहुत प्यार है... फिर क्या था, ऐसा लगा कि आसमां ही नहीं सब कुछ नीला हो चला है, मैं पैरों पर नही परों पर हूं, उड़ रही हूं कहीं नील गगल में, कहीं दूर क्षितिज को चूम रही हूं, लाल हूं सांझ में भी भौर सी, पी रही हूं चांद को और जल रही हूं सूरज से भी... मैंने सोचा, क्या जरूरी है इस मीठे मन को नाम देना, क्यों न इसे बेनाम छिपा कर रखा जाए. एक अरमान जैसा, एक बेहद प्यारे ख्वाब जैसा. जिसे हम बार-बार देखना चाहते हैं. पर देखो न, ये जो ख्वाब हैं न ये हमारी नहीं अपनी मर्जी से आते हैं. तो क्या, बस इंतजार... हां, इंतजार ही तो कर सकते हैं हम. उनके चले जाने पर फिर से आने का...
मन अपनी बातें कह कर जा चुका था. मैं वहीं खड़ी थी, पर अकेली नहीं, उसके स्पर्श के साथ, वो स्पर्श जो बचपने को मिला, वो जिसका ख्वाबों में इंतजार होगा, वो जो महका देता है उदास रात में अकेली हवा को भी, वो जो टपकता है चांद से लगातार, वो जो खिड़की के कोने से मुझे हमेशा ताकता है, वो जो आंखों के झरोखों से दिल में झांकता है... उसके सरपट दौड़ते कदम चले जा रहे हैं मुझसे दूर और मैं दौड़ रही हूं उनके करीब, और करीब, और करीब, बेहद करीब ये कहने को - 'बुद्धू, तुम जाकर भी नहीं जा पाओगे'.
अंधेरे में दुबके इस मन को आंखों के रौशनदान बहुत पसंद जो हैं. यहीं से वो देखते हैं हरे-भरे बाग, बागों में बैठे परिंदे, आसमान में दौड़ती बेघर हवा, समंदर पर झुका प्यासा बादल, धरती को चूमता आसमां... वह सोचता है यह सब स्थाई है! ठीक उसके प्रेम से... पर रे भोले मन, हरे बाग, परिंदे, बेघर हवाएं, बादल, धरती और आसमां कहां स्थाई ठहरे, और प्रेम... अह! प्रेम तो निरा निर्मोही है... तू नहीं जानता, वो उस दिन सब छोड़ देता है, जिस दिन मोह छूटता है... किसने कहा प्रेम स्थाई है... सबकुछ परिवर्तनशील है बुद्धू...
मेरी बातों में अक्सर उसका मन नहीं लगता, मुंह घुमा लेता है मुझसे... पर मेरा साथ उसे पसंद है. भले ही चुपचाप सा, लेकिन रहता पास ही है... कल कहने लगा, 'तुम मानती क्यों नहीं, तुम्हें प्यार है.' और मैंने मुंह अपनी टीशर्ट के अंदर घुसा लिया... उसने कहा- 'अब ये क्या बचपना है...'
मैं चुप थी, उस ढीठ मन से कहा- 'ये बचपना कहां... बचपना तो इस वक्त तुम्हारे बालों से खेल रहा है, देखो वो लुढ़क कर तुम्हारे कांधे पर आ बैठा है, अब जरा उसे देखो भी... अरे, अरे वो गर्दन पर उंगलियां क्यों फेर रहा है... ये ढीठ तुम्हारे सीने से क्यों जा लिपटा है... अरे रोको इसे, चलो छोड़ो करने दो इसे ये बचपना...'
'तुम बोलने से इतना डरती क्यों हो, बोल दिया करो न हर वो बात, जो किसी से नहीं कहती या फिर सभी को बता देना चाहती हो...'
ऐसा अक्सर होता है, कुछ कहते कहते कहने का मन नहीं करता, तो चुप रहते रहते चुप रहने का भी मन नहीं करता... उस दिन ऐसा बहुत कुछ था जो मन को बताना था, लेकिन वो सुनता कहां है मेरी. दो बातें सुनने के बाद बस अपनी कहता है... बहुत कुछ ऐसा जो मैं बार-बार सुनना चाहूं, लेकिन बुद्धू सा वो एक ही बार कहता है हर बात...
कहने लगा तुमसे बहुत प्यार है... फिर क्या था, ऐसा लगा कि आसमां ही नहीं सब कुछ नीला हो चला है, मैं पैरों पर नही परों पर हूं, उड़ रही हूं कहीं नील गगल में, कहीं दूर क्षितिज को चूम रही हूं, लाल हूं सांझ में भी भौर सी, पी रही हूं चांद को और जल रही हूं सूरज से भी... मैंने सोचा, क्या जरूरी है इस मीठे मन को नाम देना, क्यों न इसे बेनाम छिपा कर रखा जाए. एक अरमान जैसा, एक बेहद प्यारे ख्वाब जैसा. जिसे हम बार-बार देखना चाहते हैं. पर देखो न, ये जो ख्वाब हैं न ये हमारी नहीं अपनी मर्जी से आते हैं. तो क्या, बस इंतजार... हां, इंतजार ही तो कर सकते हैं हम. उनके चले जाने पर फिर से आने का...
मन अपनी बातें कह कर जा चुका था. मैं वहीं खड़ी थी, पर अकेली नहीं, उसके स्पर्श के साथ, वो स्पर्श जो बचपने को मिला, वो जिसका ख्वाबों में इंतजार होगा, वो जो महका देता है उदास रात में अकेली हवा को भी, वो जो टपकता है चांद से लगातार, वो जो खिड़की के कोने से मुझे हमेशा ताकता है, वो जो आंखों के झरोखों से दिल में झांकता है... उसके सरपट दौड़ते कदम चले जा रहे हैं मुझसे दूर और मैं दौड़ रही हूं उनके करीब, और करीब, और करीब, बेहद करीब ये कहने को - 'बुद्धू, तुम जाकर भी नहीं जा पाओगे'.
सोमवार, 6 अगस्त 2018
लड़कियां रुबाई सी होती हैं!
क्या हर कहानी सच्ची होती है... शायद हां. आखिर कहानियां हमारे अपने किस्सों से ही तो बनती हैं न... मानो जैसे जिंदगी को सुनते-सुनते एक रोज ठहर कर उसे कुछ कह देना, फिर उसे ही बता देना वो तमाम किस्से जो उसने ही हमें सुनाए थे, जिनमें हम अक्सर रोए तो अक्सर मुस्कुराए थे. कभी-कभी जिंदगी जब किताबों से निकल कर आती है तो सुंदर लगती है और इसके बाद जब वो फिर किताब होती है तो और खूबसूरत हो जाती है... कुछ यूं ही तो तुम हो मेरी जिंदगी में बेमतलब पर बेशकीमती से, पत्थर होते हुए भी हीरे से, दूर होते हुए भी करीब से, जिंदगी न होते हुए भी जिंदगी से...
याद है तुमने कहा था न-
'तुम दिल्ली की बारिश हो... खुद तो गीली हो ही मुझे भी हर बार भिगा जाती हो. कभी-कभी सूखा भी होना चाहिए न. ज्यादा नमी भी अच्छी नहीं... '
'दिल्ली की बारिश! क्यों?'
'बस हो तो हो...'
'हम्म... और तुम! तुम किसी फोल्डर से हो. जिसमें सिर्फ फेक्ट्स रखे हैं. ऐसा फोल्डर जिसे खोलने पर जीके तो बढाया जा सकता है प्यार नहीं... तुम्हें जरा सा प्यार, जरा सी बारिश और थोड़ी सी ठंड भी डाउनलोड करनी चाहिए... कब तक नोटपेड बने रहोगे, पेंट बनो न, रंगों से भरपूर, संभावनों से लबरेज और कल्पनाओं की असीमित रेखाओं से भी परे... क्या हुआ बोलते क्यों नहीं...'
'तुम बोलो, अच्छी लगती हो बोलते हुए...' इन शब्दों से जैसे दिन भर चहकते दिल्ली के किसी चोराहे पर अचानक से रात का सन्नाटा पसर गया था... इस कानफाडू सन्नाटे को तुमने ही तो तोड़ा था न- 'अच्छा, बताओ तो सही हम इतनी बातें क्यों करते हैं?'
मैने बचपने से कहा था 'तुम ही बताओ क्यों?'
'क्योंकि तुममें नशा है, चरस जैसा नशा, मैं तुमसे बेमतलब बातें किए बिना रह नहीं सकता... तुम्हारी लत हो गई है मुझे... '
मैं महकने लगी. पर चरस सी नहीं, मोगरे सी... ये तेज खुशबू सबको मेरी आंखों में तैरती दिख रही थी... मेरी आंखें जिस किसी से मिलतीं वो महक उठता... तुमसे जब जब बातें करती मेरे चारों ओर खुशबू फैल जाती. बेशम सी, अटखेलियां करती खुशबू... मानों मैं ही उसका फूल हूं और मुझ पर मंडराना ही उसकी सार्थकता.
(मैंने सोचा लड़कियां किसी रुबाई सी होती हैं, किसी लेखक की रचना जैसी, जिन्हें प्यार की खूब तलब होती है. वो चाहती हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए, बांचा जाए, बदनीयत से नहीं, प्यार से, सहेज कर... ठीक उन्हीं नजरों से देखा जाए जैसे लिखना छोड़ देने के बाद कोई अपनी पुरानी रचनाओं को देखता है... कागज पर उभरे उन अक्षरों के बदन को हर्फ-दर-हर्फ उंगलियों का स्पर्श देता है, उकसाता है अपने मन को फिर कुछ लिखने को...)
और मैंने तुमने पूछा था- 'चरस, लत... अरे ठहरो भई... कहां जा रहे हो तुम. मैं चरस नहीं मोगरे का फूल हूं. सादा, लेकिन महक से भरा... और हां तासीर में गर्म. बच कर रहना...'
और तुमसे बातें करने की खुशी में ठहाके की महक लिए चेहरे पर बिखर आए थे कुछ मोगरे के फूल, कुछ कलियां और कुछ हरे पत्ते... पर समझ से परे थीं तुम्हारी बातें. न जाने क्यों रोज एक नई उपमा देते थे मुझे. ऐसा तो नहीं था कि मैंने ये सब पहली बार सुना. पर हां, पहली बार अच्छा जरूर लगा... कभी-कभी अजीब लगता, फिर मन से कहती 'कितनों पर भरोसा नहीं करेगा रे दुष्ट... समझ, सब एक से नहीं होते...' पर ये जो मन है न, उसके मन में ही चोर है...
मोगरे की उस महक ने उस दिन हमें शब्द विहीन सा छोड़ दिया था. मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कहीं दूर तुम महक रहे हो मेरी खुशबू में और यहां मैं पत्ता-पत्ता समेट रही हूं कि अगली बार दिल्ली की नहीं फूलों की महकती बरसात बन सकूं... बता सकूं कि रुबाई हूं मैं ठंडक, महक, नशे और गर्माहट से भरी... बता सकूं कि मैं वो झरोखा हूं जो उमस भरे कमरे को देता है ठंडी ताजा सांसें, बता सकूं कि रात के साये में जब चांद छिप जाता है, तो अंधेरे समंदर पर सितारों से जगमगाते जुगनू हूं मैं, बता सकूं कि लत नहीं लहर हूं, रात हूं, सहर हूं और जो तुम में गुम हो गया है ऐसा एक पुराना किस्से-कहानियों वाला शहर हूं...
तुम्हें याद हैं न ये बातें...
मंगलवार, 31 जुलाई 2018
सुनों...
मेरे दिल की कहते हो या अपने दिल की सुनते हो,
कुछ तो है जो तुम अंदर ही अंदर बुनते हो...
सुनों,
टूटे तारे से बना वो रौशन सा रेश्मी स्पर्श लिए,
वो खुद-ब-खुद आते हैं या तुम ही ख्वाबों को कहीं फूलों से चुनते हो...
सांस में उतर रहे हो किसी लत से,
ये अदा है या मुझमें कहीं चुपचाप किसी धूंए से घुलते हो...
बताओ तो जरा,
पर्दा लाख किया था हमने तुमसे,
फिर तुम बेपर्दा हो? या चुपके-चुपके इन पर्दों से भी मिलते हो...
-----------
-----------
कुछ तो है जो तुम अंदर ही अंदर बुनते हो...
सुनों,
टूटे तारे से बना वो रौशन सा रेश्मी स्पर्श लिए,
वो खुद-ब-खुद आते हैं या तुम ही ख्वाबों को कहीं फूलों से चुनते हो...
सांस में उतर रहे हो किसी लत से,
ये अदा है या मुझमें कहीं चुपचाप किसी धूंए से घुलते हो...
बताओ तो जरा,
पर्दा लाख किया था हमने तुमसे,
फिर तुम बेपर्दा हो? या चुपके-चुपके इन पर्दों से भी मिलते हो...
-----------
कतरा कतरा प्यास...
'जाना वाष्प होना तो नहीं...'
कतरा कतरा प्यास...
वो जर्रा-जर्रा रेत सा,
मुझ पर बिन ठहरे, उस एक पल में गुजरता है,
ऐसे में जब कभी
पथराया आसमान और पिघलती जमीन,
पूछ बैठते हैं मुझसे मेरी फितरत,
तो मैं एक जोड़ी आंखों से टपका देती हूं,
इंतजार में पानी हुआ वक्त,
कुछ कतरा प्यास...
और,
निरंतरता को तलाशता वो पल...
कठोरता और मृदुता से परे,
कहीं जम गया है,
कहीं आसमान के उस कोने में,
जहां न हवा है न सांस,
निरंतर दम तोड़ता,
तलाशता है बहाव को,
और बिखराव को...
पर नहीं,
वो ये क्यों भूल जाता है,
इंतजार ही है उसकी प्राण वायु
कि जिस दिन ये खत्म होगा,
वो भी रेत सा बिखरेगा जाएगा जर्रा-जर्रा,
और बनेगा,
पत्थर हो चुका वक्त,
और कतरा कतरा प्यास...
-----------
-----------
मुझ पर बिन ठहरे, उस एक पल में गुजरता है,
ऐसे में जब कभी
पथराया आसमान और पिघलती जमीन,
पूछ बैठते हैं मुझसे मेरी फितरत,
तो मैं एक जोड़ी आंखों से टपका देती हूं,
इंतजार में पानी हुआ वक्त,
कुछ कतरा प्यास...
और,
निरंतरता को तलाशता वो पल...
कठोरता और मृदुता से परे,
कहीं जम गया है,
कहीं आसमान के उस कोने में,
जहां न हवा है न सांस,
निरंतर दम तोड़ता,
तलाशता है बहाव को,
और बिखराव को...
पर नहीं,
वो ये क्यों भूल जाता है,
इंतजार ही है उसकी प्राण वायु
कि जिस दिन ये खत्म होगा,
वो भी रेत सा बिखरेगा जाएगा जर्रा-जर्रा,
और बनेगा,
पत्थर हो चुका वक्त,
और कतरा कतरा प्यास...
-----------
'जाना वाष्प होना तो नहीं...'
बुधवार, 25 जुलाई 2018
'जाना वाष्प होना तो नहीं...'
वो सावन सा बरस रहा था और वो रेत सी बूंद-बूंद उसे संजो रही थी. खुद में सांस सा भर तो रही थी, लेकिन उसे रोक कब तक पाएगी... एक रोज छोड़ना तो होगा ही... एक रोज तो वो वाष्प होगा... कब तक रोक पाएगी इस अंजान सी असीमित पर उसकी अपनी सीमाओं में बंधी वाष्प को... कहीं वो खुद भी प्यास भूल कर पानी तो नहीं हो जाना चाहती, कहीं उस शाप को भूल तो नहीं रही... शाप! हां वो शाप, जो उसे दे गया था एक बादल... वो भूल रही है कि वो रेत है. तृष्णा और प्यास ही धधकती है उसकी देह में... प्यास, कभी न बुझने वाली... नहीं नहीं, अगर ऐसा है, तो ये बूंदे इतनी ठंडी क्यों हैं, इससे पहले तो कभी न हुआ ऐसा...
क्यों इतनी नमी सी आई है उसके मन में, क्यों भर-भर आता है बार-बार. क्यों उड़ता है हवा में वाष्प सा, ठीक वैसे जैसे कुछ रोज बाद वो चला जाएगा उससे अलग होकर...
'...'
'कुछ कहो तो सही'
'...'
'तुम कुछ बोलती क्यों नहीं हो... न बोलो, पर तुम्हारी आंखें सब कहती हैं...'
'... सच, क्या कहती हैं.'
'बहुत कुछ...'
'जरा संभल कर रहना, मेरे कान देखते भी हैं... वो देख लेते हैं तुम्हारे शब्दों में छिपा नेह... '
'नेह... हम्म...' और वो मुस्कुरा दिया था...
उसकी मुस्कान की मिठास ने उसे याद दिला दी प्यास, चुभन, छूटती सांस, वाष्प होती बूंदें और, और... वो शाप
वो चुप थी, उसने फिर कहा-
'कुछ कहो, मेरे बारे में, कुछ अच्छा...'
(अच्छा, अच्छा...!!' भला तुमसे अच्छा भी कुछ हो सकता है... इतनी ठंडक, इतना सुकून, इतना अपना, करीब बहुत करीब... )
'कहो न कुछ...' उसने तंद्रा तोड़ी.
'हां, तुम भले हो, सच्चे हो, सही हो और हां अपने हो...'
शुक्रिया... इतने नेह के लिए.
('नेह, वो तुमने देखा कहां, वो तो तहों में बंद है, बूंदों में भीग कर महक रहा है कहीं मन के कच्चे कोनों में, नहा रहा है खुलेआम बेशर्म सा किसी एकाकी छत पर, धड़क रहा है दिल्ली के किसी पार्क में बैठे दो ड़रे सहमे से दिलों में, घुल रहा है मैगी की महक में वाष्प सा... वाष्प, ओह तुम भी हो जाओगे न एक दिन... और मैं फिर रह जाऊंगी मरुस्थल सी....)
उसने मुंह घुमाया, उसकी ऊंगलियां किबोर्ड पर दौड़ रही थीं तेजी से. वो आंखें बंद किए उन उंगलियों की छुअन को सहेज रही थी... क्यों, क्यों ये किबोर्ड पर हैं. कितना संगीत है इनकी इस थिरकन में, कितने नर्म हैं इनके पोर... वो किबोर्ड पर नहीं, उसके बालों में होनी चाहिए, बालों में भटके मुसाफिर सी राह तलाशती रहें... पर ऐसे में कहीं उसका बर्फ हो चुका दिल पिघल गया तो... तो वो वाष्प होगा, अरे नहीं, वाष्प होना तो चले जाना है...
'रोक लो न उसे, रोको, रोको, अरे रुको रुको...'
वो काम छोड़ पलट गया था-
'क्या हुआ, किसे रोक रही हो, यहीं तो हूं मैं...'
'...'
तुम फिर कुछ नहीं बोलोगी'
'...' ( बोल तो रही हूं, तुमको सुनता ही नहीं, वैसे तो कहते हो कि आंखें बोलती हैं. फिर बार-बार पूछते क्यों हो...)
'तुम चुप ही रहो... मैं चला, मेरा काम खत्म हुआ. चलो कल फिर मिलेंगे'
वो उठा, और चला गया...
मैं वहीं बैठी थी... चुपचाप अंतस में उठती प्यास को सहलाती हुई... क्या उसका जाना वाष्प होना था... नहीं नहीं, उसने कहा न कल फिर मिलते हैं... वो लौट आएगा, फिर बरसेगा बूंद बूंद... लेकिन क्या फिर जाएगा भी... हां, जाएगा न, फिर फिर लौट आने को...' पर, काश कि इस वाष्प के साथ मेरे कण भी वाष्प हो जाएं और जब ये बरसें कभी तो समंदर पर जा बरसें, मुझे छोड़ दें बूंदों संग उसी अंतहीन ठंडक के आगोश में, ताकी रेत होकर भी मैं रहूं पानी के बीच, तैरती रहूं ताउम्र उस खारे पानी में, तलाशती रहूं तुम्हें और तुम सी मिठास...'
क्यों इतनी नमी सी आई है उसके मन में, क्यों भर-भर आता है बार-बार. क्यों उड़ता है हवा में वाष्प सा, ठीक वैसे जैसे कुछ रोज बाद वो चला जाएगा उससे अलग होकर...
कल ही की तो बात है, जब उसने कहा था
'उड़ चलो मेरे संग...''...'
'कुछ कहो तो सही'
'...'
'तुम कुछ बोलती क्यों नहीं हो... न बोलो, पर तुम्हारी आंखें सब कहती हैं...'
'... सच, क्या कहती हैं.'
'बहुत कुछ...'
'जरा संभल कर रहना, मेरे कान देखते भी हैं... वो देख लेते हैं तुम्हारे शब्दों में छिपा नेह... '
'नेह... हम्म...' और वो मुस्कुरा दिया था...
उसकी मुस्कान की मिठास ने उसे याद दिला दी प्यास, चुभन, छूटती सांस, वाष्प होती बूंदें और, और... वो शाप
वो चुप थी, उसने फिर कहा-
'कुछ कहो, मेरे बारे में, कुछ अच्छा...'
(अच्छा, अच्छा...!!' भला तुमसे अच्छा भी कुछ हो सकता है... इतनी ठंडक, इतना सुकून, इतना अपना, करीब बहुत करीब... )
'कहो न कुछ...' उसने तंद्रा तोड़ी.
'हां, तुम भले हो, सच्चे हो, सही हो और हां अपने हो...'
शुक्रिया... इतने नेह के लिए.
('नेह, वो तुमने देखा कहां, वो तो तहों में बंद है, बूंदों में भीग कर महक रहा है कहीं मन के कच्चे कोनों में, नहा रहा है खुलेआम बेशर्म सा किसी एकाकी छत पर, धड़क रहा है दिल्ली के किसी पार्क में बैठे दो ड़रे सहमे से दिलों में, घुल रहा है मैगी की महक में वाष्प सा... वाष्प, ओह तुम भी हो जाओगे न एक दिन... और मैं फिर रह जाऊंगी मरुस्थल सी....)
उसने मुंह घुमाया, उसकी ऊंगलियां किबोर्ड पर दौड़ रही थीं तेजी से. वो आंखें बंद किए उन उंगलियों की छुअन को सहेज रही थी... क्यों, क्यों ये किबोर्ड पर हैं. कितना संगीत है इनकी इस थिरकन में, कितने नर्म हैं इनके पोर... वो किबोर्ड पर नहीं, उसके बालों में होनी चाहिए, बालों में भटके मुसाफिर सी राह तलाशती रहें... पर ऐसे में कहीं उसका बर्फ हो चुका दिल पिघल गया तो... तो वो वाष्प होगा, अरे नहीं, वाष्प होना तो चले जाना है...
'रोक लो न उसे, रोको, रोको, अरे रुको रुको...'
वो काम छोड़ पलट गया था-
'क्या हुआ, किसे रोक रही हो, यहीं तो हूं मैं...'
'...'
तुम फिर कुछ नहीं बोलोगी'
'...' ( बोल तो रही हूं, तुमको सुनता ही नहीं, वैसे तो कहते हो कि आंखें बोलती हैं. फिर बार-बार पूछते क्यों हो...)
'तुम चुप ही रहो... मैं चला, मेरा काम खत्म हुआ. चलो कल फिर मिलेंगे'
वो उठा, और चला गया...
मैं वहीं बैठी थी... चुपचाप अंतस में उठती प्यास को सहलाती हुई... क्या उसका जाना वाष्प होना था... नहीं नहीं, उसने कहा न कल फिर मिलते हैं... वो लौट आएगा, फिर बरसेगा बूंद बूंद... लेकिन क्या फिर जाएगा भी... हां, जाएगा न, फिर फिर लौट आने को...' पर, काश कि इस वाष्प के साथ मेरे कण भी वाष्प हो जाएं और जब ये बरसें कभी तो समंदर पर जा बरसें, मुझे छोड़ दें बूंदों संग उसी अंतहीन ठंडक के आगोश में, ताकी रेत होकर भी मैं रहूं पानी के बीच, तैरती रहूं ताउम्र उस खारे पानी में, तलाशती रहूं तुम्हें और तुम सी मिठास...'
बेतकल्लुफी...
शुक्रवार, 20 जुलाई 2018
कहो न
क्या सौंप सकते हो उसे अपने मन का मनका,
जिससे कोई वास्ता न हो तन का...
क्या जी सकते हो उसके बेतुके, बेमतलब जंजालों में,
क्या खो सकते हो उसके उलझे-सुलझे बालों में...
क्या रह सकते हो उसके कच्चे मन के अंदर,
क्या तैर सकते हो भावनाओं में जैसे अनंत समंदर...
क्या उड़ सकते हो बिन पंख उसकी कल्पनाओं के गगन में,
गुरुवार, 19 जुलाई 2018
तूफां
जिसे शहर भर में तलाशती रही रूह,
वो आवारगी कहीं रगों में दौड़ती सी थी...
उसे कहां खबर थी, है दीवानगी हवाओं में,
जो बेतकल्लुफ हो लबों से निगाहें प्यासी जा लगी थीं.
कहां था अंदाजा कि ये जुनूं जला देगा आंचल सुर्ख शाम का,
कि ये प्यास ले डूबेगी समंदर को भी...
इस पर भी कुछ यूं करीब से गुजर गया वो कम्बख्त,
जैसे गुजरा हो कोई तूफां चुपचाप सा तबाही कर बस अभी-अभी...
वो आवारगी कहीं रगों में दौड़ती सी थी...
उसे कहां खबर थी, है दीवानगी हवाओं में,
जो बेतकल्लुफ हो लबों से निगाहें प्यासी जा लगी थीं.
कहां था अंदाजा कि ये जुनूं जला देगा आंचल सुर्ख शाम का,
कि ये प्यास ले डूबेगी समंदर को भी...
इस पर भी कुछ यूं करीब से गुजर गया वो कम्बख्त,
जैसे गुजरा हो कोई तूफां चुपचाप सा तबाही कर बस अभी-अभी...
बेतकल्लुफी...
दिन के अंधेरे और रात के उजाले में,
जब कभी तुम यूं ही लौट आओ अपने आने-जाने में,
मुझे पुकार लेना, रोक लेना जरा इशारे से.
पूछना मुझसे तुम, क्या कहते हैं जमाने वाले,
हमारे और तुम्हारे बारे में.
हम बेतकल्लुफी से तुम्हें हर दर्द दिखाएंगे,
तुम जरा रो देना हम पर, हमारे दर्द पर,
फिर देखना कैसे हम पर खिलखिलाकर ये जमाने वाले बेतहाशा मुस्कुराएंगे...
जब कभी तुम यूं ही लौट आओ अपने आने-जाने में,
मुझे पुकार लेना, रोक लेना जरा इशारे से.
पूछना मुझसे तुम, क्या कहते हैं जमाने वाले,
हमारे और तुम्हारे बारे में.
हम बेतकल्लुफी से तुम्हें हर दर्द दिखाएंगे,
तुम जरा रो देना हम पर, हमारे दर्द पर,
फिर देखना कैसे हम पर खिलखिलाकर ये जमाने वाले बेतहाशा मुस्कुराएंगे...
बुधवार, 11 जुलाई 2018
इंतजार
उंगलियों के पोरवों पर, हवा सा यार रहता है,
वो रातें महसूस होती हैं लबों के सिरों पर,
सिलवटों का तो सिलसिला ही बेहिसाब रहता है,
लकीरों सा बिछा है हाथों में कहीं, पढ़ने को मन बेकरार रहता है,
वो चला गया कहकर कि अभी आता हूं,
पर फिर भी वक्त-बेवक्त, हर वक्त, इंतजार रहता है...
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम किस्से मुझे फिर से सुनाना. और पूछना मुझसे कि हुआ कुछ ऐस...
-
मु्झे देखिए, परखिए और पंसद आने पर चुन लीजिए, आप लगा सकते है मेरी बोली, अरे घबराएं नहीं, यदि आप पुरुष हैं तो कतई नहीं, मेरी बोली आपकी जेब पर ...
-
जिसे कहने के लिए, तुम्हारा इंतज़ार था, वो बात कहीं छूट गई है। जिसके सिरहाने सर रखकर सोने को मैं, बेकरारा थी, वो रात कहीं टूट गई है। अतृप्त...
-
अकसर देखती हूं, राहगीर, नातेरिश्तेदार और यहां तक कि मेरे अपने दोस्तयार... उन्हें घूरघूर कर देखते हैं, उन की एक झलक को लालायित रहते हैं... -...