रास्ते कहीं खत्म नहीं होते, हम एक बार अपनी मंजिल को छू लें,लेकिन ये भी सच है कि एक रास्ता पार होते ही दूसरी राह बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार होती है। बस देर इस बात की है कि हम जो मंजिल पा चुके है उसका मोह त्याग कर नए रास्ते को अपना लें...
बुधवार, 30 दिसंबर 2009
स्मृति विहंग
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
होठों का विपुल क्रंदन
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009
यह पीड़ामयी बयार
अश्रु उत्स उधार,
मेरी स्मृति बराए जूं आहार,
तुम ही कहो अब
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009
नस्ती सी पल्लवी
एक वंचिता,
जिसे प्रायः
सभी ने ठगा.
वृषक तो आए,
कई मुझ तक,
हो लालायित
इस नीरव योवन पर,
किंतु वहन न किया मेरा...
इस पर भी
अंजिर तक मेरे,
प्रेष्ठ तुम्हारा यूं आना
और आकर चले जाना...
सहसा कभी यूं ही
मुझ नय को
नीरव ध्वनि से
पुल्कित करना,
सच!
याद रहेगा मुझको
नित यूं,
तुम्हारा मुझे वलना.
कुछ यूं नेम रहा
स्नेह सूत्र हमारा...
जैसे नस्ती सी पल्लवी को
मिल गया हो
क्षितिज का कोई किनारा...
सिर्फ़ तुम्हारी 'अतृप्त ' अनु
सोमवार, 14 सितंबर 2009
बनना और बिखरना
कि मैं किसी के बिस्तर की,
सिल्वट भर बन रहूं,
कुछ ऐसी
कि उठने पर,
उसे खुद न पता हो
कि किस करवट से,
उभर आई थी मैं.
जरा गौर से देखो,
हमारा रिश्ता,
कुछ ऐसा ही तो है,
हां,
मैं हमेशा चाहते,
न चाहते
तुम्हारे सामने बिछ जाती हूं,
तुम उठते हो
और मुझे झाड़ देते हो
सदा के लिए...
तुम्हारी कसम
सच कहती हूं,
यह सोचकर अजीब लगता है
कि
मेरे अस्तित्व का बनना
और
बन कर बिखर जाना
तुम्हारे ऊपर ही निर्भर करता है.
अनिता शर्मा
शनिवार, 12 सितंबर 2009
वो अदना सी चादर
मैं अपनी मुश्क से मुंह ठके
सोने चली थी.
रोज की तरह
तुम्हारी यादों के
भूखे भेडिये भी
झपट पड़े थे.
यकायक
चेहरे पर पड़ी चादर ने,
मेरे होठों को छू लिया.
मुझे लगा यह तो तुम हो,
पर...
न न तुम कैसे हो सकते हो भला,
इतने आत्मिय ?
अब तो
करीब आकर वह
मेरे गालों से लिपट गई.
मैं सिहर गई,
मैंने आंखों को जोर से मूंद लिया,
और जी भर तुम्हें चूम लिया...
रोज की ही तरह,
एक और रात
तुम्हारे साथ गुजर गई.
पर हां,
कुछ अलग थी वह.
क्योंकि उस रात से
वह अदना सी चादर भी
मेरे लिए खास बन गई.
अनिता शर्मा
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
नियती
आज अजीब जीद कर रही है,
लंबी सी है,
फन उठाए बार बार मुझे डस रही है,
कहती है,
तुम्हारे बारे में नहीं लिखेगी,
अवहेलना के तीखें दंश,
और नहीं सहेगी...
कीचड़ को,
कागज पर रगड़ उतारने से,
मना जो कर रही है...
अब तुम ही समझाओ इसे
कि अवहेलना ही सही,
पर तुम्हारा दिया कुछ तो है,
इसके बेचारगी भरे जीवन में,
जो इस के नग्न शरीर पर,
वस्त्र सा पड़ा रहता है,
दुखता हो तो भी क्या,
अवहेलना सहसह कर
मुंह उठाए फिरफ़िर
तुम्हारी ओर दौड़ना,
यही तो इस की नियती है।
(अनीता शर्मा)
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
स्नेहमयी पराजय
मेरा यह भय,
हो जाओ सदा के लिए
कहीं गहन अंधकारमय,
नित क्षणप्रतिक्षण
तुमसे दूर होने का,
यह निर्बाध भय,
निस्वार्थ सा बढ़ता है,
मुझमें अक्षय
बना लो दूरियां मुझसे,
तुम हो निर्भय
न घबराओ परिणाम से
कदाचित तय है
मेरे अस्तित्व का क्षय
क्योंकि मैं स्वयं ही
स्वीकार चुकी हूं,
तुमसे,
अनिता शर्मा
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
तेरे ख्वाबों के तिनके
तुझे भूलते भूलते तुझमें ही कहीं खो जाती हूं मैं
हर वक्त तेरी यादों पे मिट~टी डाल देती हूं
पर अगले ही पल उसकी छांव में खुद को सोया हुआ पाती हूं मैं
खंजर ए जुदाई को सिने से निकाल देती हूं,
पर अगले ही पल खुद को लहूलुहान पाती हूं मैं
दूर होकर भी छीपा है तू मुझमें ही कहीं
हर वक्त तेरी सांसों की आहट से सिहर जाती हूं मैं
घर की दीवारों से बातें किया करती हूं
सपनों की हकीकत में कहीं एक जिंदगी जी जाती हूं मैं
रोज तेरे ख्वाबों की उम्मीद लिए सोती हूं
पर उठने पर ख्वाबों के तिनकों को बिखरा पाती हूं मैं
सोचती हूं दरवाजे पर दस्तक दी है तुने
पर बाहर जाने पर बस तेरी उम्मीद को खडा पाती हूं मैं
अनिता शर्मा
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
सबब
तेरे इकरार ए मुहब्बत में,
मुझे बेघर सा कर दिया है,
अपने ही घरोंदे से।
दर बदर भटक रही हूं,
कि कोई तो आशियां मिलेगा इस जमाने में।
आशियां न सही दिल को बहला लूंगी मैं,
तेरे दिल के बस छोटे से कोने में।
बस एक बार इतना बता दे,
के कितना यकीन करूं,
तेरे बेवफा न होने में।
हर जख्म को छिपा कर रख सकती हूं,
हंसी के दामन में,
पर,
उस वक्त जब हंसी ही जख्म बन जाएगी,
तो जाने क्या मजा होगातेरे कांधे पर सर रखकर रोने में।
जानती हूं ज्यादा न सही थोडा ही,
पर दर्द तो जरूर होगा तेरे भी सीने में।
तुम्हारी अनु
बुधवार, 25 मार्च 2009
मैं और मेरा कमरा...
ठीक सामने एक संदूक पर,
सिल्वटों भरी मेरी पेंट पडी है
उपर हैंगर पर एक चाइनीज जींच टंगी है,
दो दीवारों पर टिका एक टांड भी है
जिसमें न जाने क्या क्या भरा है
टांड पर पुरानी साडी का परदा
और उसके ठीक नीचे एक डबलडोर फ्रिज रख है
साथ में एक गेंहू की टंकी
तनी खडी है षायद किसी अकड में है
साथ ही सटी है पूजा की अलमारी
जिस पर परदा लगा है
श ssss षायद भगवान सो रहे हैं
इसके नीचे रखी है सिलाई मषीन
और तितर बितर पडे धागे
एक केंडल स्टेंड और
डाइनिंग टेबल सेट की एक कुर्सी
कुल मिलकार पता चलता है
कि मैं
एक मध्यवर्गीय परिवार से हूं
कुछ ऐसे मुझे याद करना
अब हमें जुदा होना होगा,
एक दूजे को हमेशा के लिए,
खोना होगा,
पर सुनो,
कभी गलती से तुम्हें,
अगर मैं स्मरण हो आउं,
तो अपनी आंखे बंद करना,
और हल्के से मुस्करा देना,
उन पलों के लिए,
जो स्नेहपूर्ण थे,
और बाद में मेरे दर्द का आधार बनें,
उन्हें याद करना तब,
जब तुम कभी बहुत दुखी हो,
या,
खुद को अकेला पाओ,
मेरे जख्मों के लिए यह काफी होगा,
तुम्हारा साथ न मिला तो क्या,
जब तुम याद करोगे,
तो मैं हमेशा महक उठूंगी,
मेरी यादों में तुम न हो तो भी,
मैं खुश हो लुंगी
यह सोच कर ही सही,
की
"पता नहीं क्यों आज मन बहुत खुश है"
शुक्रवार, 13 मार्च 2009
वो कुछ लावारिस चीजें
और अपने सिरहाने तक जाओ,
वहां जो तुम्हारे बिस्तर पर सिलवटें पड़ी हैं,
वो सिर्फ तुम्हारी नहीं हैं,
वहां से कुछ दूरी पर,
चूड़ी का एक टूटा टुकड़ा पड़ा है,
वो भी सिर्फ मेरा नहीं है,
अकसर लोग जुदा होने पर,
अपनी चीजें मांगते हैं,
पर मैं,
तुमसे कुछ नहीं मांगूंगी,
क्योंकि,
वो चीजें न सिर्फ मेरी हैं,
और न ही सिर्फ तुम्हारी,
वो सभी चीजें और पल हमारे हैं,
और जब हम कहीं खो गया,
तो जान लो,
कि वो अनमोल चीजें,
अब लावारिस हो चुकी हैं,
अब खड़े क्या हो,
उठो और उन्हें उठाकर...
घर से बाहर फेंक दो...
(अनिता शर्मा)
बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
अदृश्य से तुम---
खाली रेखाओं से बिखरे तुम कभी कभी
मेरे लिखने का आधार बन जाते हो...
होठों पर
आड़ी तिरछी लकीरों से चिपके तुम
कभी सहसा... मुझे छूकर चले जाते हो...
मन के किसी कोने में
सदा सहमे से बैठे रहते हो
कि, जैसे मैने तुम्हें अभी अभी
डांटा हो,
अक्सर जब
धड़कन रुक जाती है तो अहसास होता है
कि तुम अब भी चल रहे हो
रक्त वाहिकाओं में कहीं... और तुम्हारा यूं रेंगना
मुझे सिहरन सी दे जाता है।
(अनिता शर्मा)
सोमवार, 26 जनवरी 2009
निशब्द हूं मैं...
जब पहली बार
''तुम मुझे पसंद हो''
न जाने क्यों
खुद का समेट
एक खोल में
ढ़क लिया था
पर सुनो...
निशब्द हूं मैं
तुम्हारी दोस्ती पाकर
तुम हो बिखरी गंध से
जिसे कभी छूकर खुद में समा लेना चाहा मैंने
तुम हो कुछ सिमटे से...
जिसे उधेड़कर फिर बुनना चाहा मैने,
पर सुनो
निशब्द हूं मै...
तुम्हारा साथ पाकर
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...
जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम किस्से मुझे फिर से सुनाना. और पूछना मुझसे कि हुआ कुछ ऐस...
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मु्झे देखिए, परखिए और पंसद आने पर चुन लीजिए, आप लगा सकते है मेरी बोली, अरे घबराएं नहीं, यदि आप पुरुष हैं तो कतई नहीं, मेरी बोली आपकी जेब पर ...
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जिसे कहने के लिए, तुम्हारा इंतज़ार था, वो बात कहीं छूट गई है। जिसके सिरहाने सर रखकर सोने को मैं, बेकरारा थी, वो रात कहीं टूट गई है। अतृप्त...
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अकसर देखती हूं, राहगीर, नातेरिश्तेदार और यहां तक कि मेरे अपने दोस्तयार... उन्हें घूरघूर कर देखते हैं, उन की एक झलक को लालायित रहते हैं... -...